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हरी-हरी दूब पर | Hari Hari Doob Par | अटल बिहारी वाजपेयी की कविता

हरी-हरी दूब पर | Hari Hari Doob Par | अटल बिहारी वाजपेयी की कविता



हरी-हरी दूब पर
ओस की बूंदें
अभी थीं,
अब नहीं हैं।
ऐसी खुशियां
जो हमारा साथ दें
कभी नहीं थीं,
कहीं नहीं हैं।

क्वाँर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पांव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूं

या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बूंदों को ढूंढूं?

सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों न मैं क्षण-क्षण को जीऊं?
कण-कण में बिखरे सौन्दर्य को पीऊं?

सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद
हर मौसम में नहीं मिलेगी।

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