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दशहरा पर कविता | Dussehra Par Kavita hindi Mein | Poem On Dussehra | Vijaydashmi Par Kavita

 




रावण शिव का परम भक्त था

बहुत बड़ा था ज्ञानी 

दस सिर बीस भुजाओं वाला 

था राजा अभिमानी


नहीं किसी की वह सुनताथा,

करता था मनमानी 

औरों को पीड़ा देने की 

आदत रही पुरानी


एक बार धारण कर उसने

तन पर साधु- निशानी, 

छल से सीता को हरने की 

हरकत की बचकानी।


पर- नारी का हरण न अच्छा

कह कह हारी रानी

भाई ने भी समझाया तो

लात पड़ी थी खानी।


जान बूझ कर बुरे काम की

जिसने मन में ठानी,

शिवी भी सोचा ऐसे पर

अबचादया दिखानी।


नष्ट हुआ सारा ही कुनबा

लंका पड़ी गवानी, 

मरा राम के हाथों रावण 

होती खत्म कहानी।

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