मैं तज कर जा नहीं सकता तुझे ओ देश मेरे,
बुलाएं लाख ललचाएं मुझे परदेस डेरे,
बुलाएं लाख ललचाएं मुझे परदेस डेरे,
इसी पावन धरा पर हो मगन संतुष्ट हूं मैं,
लुभा सकते नहीं धन धान्य महलों के बसेरे ।
जुड़ा हूं मैं अमिट इतिहास से कैसे भुला दूं?
जो जागृत पीत की झंकार वह कैसे सुला दूं?
जो घुट्टी संग भारत वर्ष की ममता मिली थी,
उसे कैसे भुला कर आज मां तुझसे विदा लूं?
मैं तेरे संग बैसाखी कि गर्मी में तपूंगा,
मगन हो आंधियों लू के थपेड़ों को सहूंगा,
सहसो वर्ष से जो मेघ भादों मे बरसते,
तिलक हर वर्ष उन पावस कि बूंदों से करूंगा।
मगन मन मस्त लेकर घूम आऊंगा अकेले,
उमड़ती भीड़ में मिल कुम्भ और पुष्कर के मेले,
कठिन हो पंध पर हो शीश पर आशीश तेरा,
उसे पा झेल जाऊंगा सभी जग के झमेले ।
कभी फिर रात्रि को छत पर निरख कर चांद तारे,
सहज ही गुनगुनाऊंगा मधुर वे गीत प्यारे,
लिखे हैं अमिट स्याही से हृदय पर आत्मा पर,
सुने शिशुकाल में या पूर्व जन्मों में हमारे ।
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