जो दिन में कमाता हूँ,
वही शाम को खाता हूँ।
मिट्टी को पहनता,
धूप से नहाता हूँ।
गश्ती-फावड़ा, हथौड़ा-छैनी,
जो जरूरत बन जाता हूँ।
परेशानियों से रोज,
में हाथ मिलाता हूँ।
थक जाने के बाद भी,
थका नहीं बताता हूँ।
मौसम कोई भी हो,
आसमां ओढ़,सो जाता हूँ।
चूल्हे से भी ज्यादा,
खुद को में जलाता हूँ।
कोई मेरे पास नहीं आता,
भूत नहीं,भूख से डराता हूँ।
पसीना डालकर,
ख्वाबों को उगाता हूँ।
ख्वाब पूरे नहीं होते,
और में जग जाता हूँ।
मुझसे भूख भी डर जाती,
जब मे पानी को खाता हूँ।
कल वक्त बदलेगा,
यही गीत गुनगुनाता हूँ।
खैर छोड़ो,अपनी नज्म सुन,
मैं भी कपकपाता हूँ।
मैं कौन हू? इंसान, नहीं।
मैं तो मज़दूर कहलाता हूँ।
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