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भुखमरी पर कविता | Bhukhmari Par Kavita | उसकी कल्पना में रस कैसे होगा




जिस जिव्हा ने स्वाद न चखा कोई

वो अधर भला तर हों कैसे 

जिसने रूखा सूखा खाया हो हर दिन 

उसकी कल्पना में रस कैसे होगा !


जो हर दिन संघर्षरत हैं, 

दो वक्त की रोटी की खातिर… 

जिसका उदर भूख से सिकुड़ता हो

बदकिस्मती और लाचारी से 

शबी उसकी कल्पना में रस कैसे होगा !


जो हर दिन जिंदा रहने को 

ज़रूरत जितना भी ना खा पाता हो 

जिसके ख्वाबों में भी केवल

रूखा सूखा ही आता हो

जिसकी रसज्ञा को ज़ायके का ज्ञान न हो

उसकी कल्पना में रस कैसे होगा !


जिस अन्न को हम ठुकराते है

ये उसको पाकर शुक्र मनाते हैं

हम सम्मान नहीं करते जिसका 

ये उस झूठन को धो धो खाते हैं 

जिसने नाज को पानी से निगला है

 उसकी कल्पना में रस कैसे होगा !

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