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पी कहाँ? | Pi Kahan | जयशंकर प्रसाद

पी कहाँ? | Pi Kahan | जयशंकर प्रसाद

डाल पर बोलता है पपीहा— 
‘हो भला प्राणधन, तुम कहीं—? हा!’ 
आ मिला हो जहाँ। 
पी! कहाँ? पी! कहाँ? 

प्यास से मर रहे दीन चातक 
क्यों बना चाहते प्राण-घातक? 
श्यामघन! हो कहाँ? 
पी! कहाँ? पी! कहाँ? 

नभ-हृदय में घिरी मेघमाला 
चंचला कर रही है उजाला। 
देख लूँ, हो कहाँ? 
पी! कहाँ? पी! कहाँ? 

जलमयी हो रही यह धरा है। 
कंठ फिर भी न होता हरा है। 
प्यास में जल रहा। 
पी! कहाँ? पी! कहाँ? 

“प्यास कैसी तुम्हारी? पपीहा! 
कम न होकर बढ़ी जा रही हो?” 
लो, वही कह रहा— 
पी! कहाँ? पी! कहाँ? 

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