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वही कर्ण हूँ मैं | Wahi Karn hu Mai Lyrics | वही कर्ण हूँ मैं लिरिक्स | Wahi Karn hu Mai Lyrics by Ravan

वही वो कर्ण हूँ मैं | वही कर्ण हूँ मैं लिरिक्स



था दिव्य पुरुष था 
दिव्य अंश था 
था काल भी मुझसे डरता 
कर दूं परास्त देवों को भी
इतना भुजाओं में बल था।
 
था तेज अलौकिक चेहरे पर 
था क्रोध में सूर्य सा जलता 
था वीर महाभट्ट योद्धा 
मेरा नाम दानवीर कर्ण था।

जो महारथी है 
पराक्रमी है 
कर्मवीर वो कर्ण हूँ मैं।
जो कुरुक्षेत्र की मिट्टी 
के कण-कण में है 
वो कर्ण हूँ मैं।
जो सूर्य देव की स्वर्णिम किरण धरती पे 
वो कर्ण हूँ मैं।
जो प्राण भी दे दे दान में ऐसा दानवीर 
वो कर्ण हूँ मैं।

जो महारथी है 
पराक्रमी है 
कर्मवीर वो कर्ण हूँ मैं।
जो कुरुक्षेत्र की मिट्टी 
के कण-कण में है 
वो कर्ण हूँ मैं।
जो सूर्य देव की स्वर्णिम किरण धरती पे 
वो कर्ण हूँ मैं।
जो प्राण भी दे दे दान में ऐसा दानवीर 
वो कर्ण हूँ मैं।

जब जन्म हुआ मां ने त्यागा 
मुझे लोक लाज के डर से 
जिस वक्त में माँ पर निर्भर था 
उठ मा का साया भी सर से।
जो सोच कर हो पीड़ा मन में 
कुंती ने ऐसा काम किया 
गंगा में बहाया था मुझको 
दिल से निकाला और घर से। 
एक सार्थी ने मुझको पाला 
राधा ने माँ का प्यार दिया।
लोगों ने नीचे वर्ण का कह 
हर क्षण मेरा अपमान किया।
एक सूत ने पाला था मुझको 
सबने समझा मैं शूद्र हूँ।
था सत्य का किसी को ज्ञान नहीं,
मैं कर्ण, सूर्य का पुत्र हूँ। 
अपमान का घूट मैं पीता रहा,
था करमवीर मैं जीता रहा।
जो स्वाभिमान को ज़ख्म लगे,
उस वक्त में उनको सीता रहा।
मेरा जिस पर बस ध्यान था 
वो युद्ध कला का ज्ञान था 
पर सीखूं किससे युद्ध कला,
था मैं ना किसी को जानता 
रुचि को देखा अधिरथ ने, 
मुझको द्रोण के पास में ले गया।
सीखू अब मैं युद्धकला 
आश्वासन, मुझको देके गया।
पर द्रोण ने भी धिक्कारा था,
फिर मुझको ताना मारा था।
है राजपुत्रों की युद्धकला, 
ये कह कर मुझे नकारा था।
फिर युद्ध कला के ज्ञान को मैंने 
गुरु परशुराम से मांगा।
शिक्षा को देकर छीन लिया, 
इतना मैं रहा अभागा।
पूर्ण हुई शिक्षा सबकी 
था रंग मंच भी लगा हुआ।
वहां राजपुत्र के स्वागत में
सारा साम्राज्य था सजा हुआ।
खुशियां थी चारों तरफ वहाँ, 
पर बसते ढोल नगाड़े थे। 
सभी राजपुत्र वहाँ रंग मंच पे, 
रणकौशल दिखला रहे थे।
संग विजय धनुष को लिए हुए,
फिर मैं भी वहाँ पर पहूँच गया।
जो देखा मेरा रणकौशल,
सारा साम्राज भी चकित हुआ।
द्रोण ने वहाँ पे सर्वश्रेष्ठ कह 
कर के जिसे पुकारा था 
मैंने भी फिर सबके समक्ष,
उस अर्जुन को ललकारा था।
फिर किया तिरस्कृत द्रोण ने,
मुझको जाने क्या-क्या बात कही।
पहचान लिया था पुत्र को,
लेकिन कुंती फिर भी मौन रही।
फिर दुर्योधन ने भरी सभा में,
द्रोणाचार्य को रोक दिया।
मुझको कह करके अंगराज,
फिर अंगदेश मुझे सौंप दिया।
ये बात सुनी जब मैंने,
तब मैं गौरव से हर्षाया था। 
मुझे दुर्योधन ने मित्र कहा 
और सीने से भी लगाया था। 
जब कोई नहीं था संग मेरे, 
दुर्योधन साथ में खड़ा हुआ। 
मैं दानवीर, फिर उसी समय से 
दुर्योधन ऋणी हुआ। 
मैं दानवीर, फिर उसी समय से 
दुर्योधन ऋणी हुआ।  
मैं दानवीर, फिर उसी समय से 
दुर्योधन ऋणी हुआ। 

जो महारथी है 
पराक्रमी है 
कर्मवीर वो कर्ण हूँ मैं।
जो कुरुक्षेत्र की मिट्टी 
के कण-कण में है 
वो कर्ण हूँ मैं।
जो सूर्य देव की स्वर्णिम किरण धरती पे 
वो कर्ण हूँ मैं।
जो प्राण भी दे दे दान में ऐसा दानवीर 
वो कर्ण हूँ मैं।

मुझे क्रोध भयंकर आता था,
पर क्रोध को मैंने बाँध लिया। 
बनना है मुझको सर्वश्रेष्ठ,
यह मन में मैंने ठान लिया। 
किया अपमानित मुझे बार-बार,
न किसी ने मेरा मान किया। 
एक दुर्योधन ही था,
जिसने हरदम मेरा सम्मान किया।
कौन हुआ है वीर स्वयं जिसने 
त्यागा अभिनंदन को?
मिला राज्य, भोग, परिवार सभी,
पर त्याग दिया हर बंधन को।
सब बता दिया था सूर्यदेव ने,
फिर भी मैंने दान दिया
था बता इंद्र की चाल है
फिर भी त्यागा कवच और कुंडल को 
मित्र को वचन दिया था मैंने,
वचन की लाज बचाने को।
मैं कुरुक्षेत्र में उतरा था 
बस अर्जुन से टकराने को।
मेरे उन तीरों ने कब का
अर्जुन को मार दिया होता,
पर स्वयं कृष्ण बैठे थे रथ पर,
कर्ण से उसे बचाने को।
रथ 30 से हाथ पीछे हटता
जब अर्जुन तीर चलाते थे,
2 हाथ बछड़ा मैंने,
केशव मंद मंद मुस्काते थे।
श्रीकृष्ण की वाह-वाह को सुनकर, 
अर्जुन कुछ शंका करते थे। 
मेरे उस रणकौशल की क्यों
श्री कृष्ण प्रशंसा करते थे?
पूछ लिया अर्जुन ने केशव से, 
के कारण क्या है?
मैं कर्ण पर पड़ता हूँ भारी,
फिर उसकी क्यों वाह-वाह है?
कान्हा ने अर्जुन की मन की
शंका को फिर यूं दूर किया,
था अहंकार जो अर्जुन को,
केशव ने उसको चूर किया।
तीनों लोगों के स्वामी ने रथ
पर लगाम को पकड़ा है।
ध्वज में हनुमान जी बैठे हैं, 
अहि ने पहियों को जकड़ा है। 
हे अर्जुन तुम ही बतलाओ,
इसमें क्या प्रश्न शंका का?
रथ एक हाथ भी पीछे हो तो 
कर्ण है पात्र प्रशंसा का
युद्ध भयंकर चालू था,
फिर मेरा मन यूं डोल गया।
गुरु परशुराम का श्राप मुझे
मैं अपनी विद्या भूल गया।
बस उसी समय पर रथ के
पहिए को धरती ने पकड़ लिया।
धरती के श्राप का फल था वो,
तभी काल ने मुझको जकड़ लिया।
शस्त्रहीन हो करके,
जब मैं अपने रथ से उतरा था,
अर्जुन ने अपने तीरों से 
फिर मुझ पे घातक वार किया।
ध्यान था मेरा पहिये पर,
ना पास में मेरे धनुष-बाण।
तब केशव के आदेश पर
अर्जुन ने फिर मुझको मार दिया।
जब अर्जुन ने मारा मुझको,
ना अर्जुन ने बल से मारा।
भगवान साथ थे अर्जुन के
मित्र अधर्मी था मेरा,फिर भी मुझको छल से मारा।
वहाँ बिना दिव्यास्त्रों के भी
ना कर्ण कभी हारा होता,
अगर अर्जुन ने उस युद्ध में 
मुझको छल से ना मारा होता।
ना मुझ सा त्यागी हुआ कोई
ना हुआ है मुझसा योद्धा कोई
दान में मुझसे प्राण भी लो,
यूं दानवीर ना हुआ कोई।
मित्र अधर्मी था मेरा,
पर मित्र पे सब कुछ हार गया।
जिस मित्र ने साथ दिया मेरा,
उस मित्र पे जान को वार गया।
हुई थी मेरी मृत्यु जब,
सारा संसार हिमान हुआ।
हुए बहुत से योद्धा,
पर मुझ कर्ण के जैसा कौन हुआ।
हुए बहुत से योद्धा,
पर मुझ कर्ण के जैसा कौन हुआ।
हुए बहुत से योद्धा,
पर मुझ कर्ण के जैसा कौन हुआ।

जो महारथी है 
पराक्रमी है 
कर्मवीर वो कर्ण हूँ मैं।
जो कुरुक्षेत्र की मिट्टी 
के कण-कण में है 
वो कर्ण हूँ मैं।
जो सूर्य देव की स्वर्णिम किरण धरती पे 
वो कर्ण हूँ मैं।
जो प्राण भी दे दे दान में ऐसा दानवीर 
वो कर्ण हूँ मैं।

जो महारथी है 
पराक्रमी है 
कर्मवीर वो कर्ण हूँ मैं।
जो कुरुक्षेत्र की मिट्टी 
के कण-कण में है 
वो कर्ण हूँ मैं।
जो सूर्य देव की स्वर्णिम किरण धरती पे 
वो कर्ण हूँ मैं।
जो प्राण भी दे दे दान में ऐसा दानवीर 
वो कर्ण हूँ मैं।

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